श्रीराम सब के हैं, वह भारत के कण-कण में व्‍याप्‍त हैं ।

राम का चरित्र अनुशासन सिखाता है। यह भी सिखाता है कि प्रतिकूल परिस्‍थति में भी व्‍यक्ति को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए और शांत चित से समस्‍या का समाधान निकालने का मार्ग तलाशना चाहिए

भगवान राम, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, हनुमान के राम, जामवंत के राम, ऋषि विश्वामित्र के राम, सीता के राम, दशरथ नंदन राम, माता शबरी के राम, केवट के राम, कौशल्या के पुत्र राम, कैकेई के दुलारे राम, अयोध्या की जनता के श्रीराम। एक व्यक्ति इतने सारे लोगों का कैसे हो सकता है ? श्रीराम में कामना नहीं, लोभ नहीं, क्रोध नहीं, ऐसा पुरुष कैसे संभव हो सकता है ? व्यसन उन्हें लालायति  क्यों नहीं करते ? कंचन और कामिनी का मोह उन्हें क्यों नहीं सताता ? ऐसे ढेरों प्रश्‍न मन में लेकर जब रामायण का अध्ययन शुरू करेंगे तो एक अलग व्यक्तित्व की छवि उभर कर सामने आएगी। राम का त्याग है, तो लक्ष्मण का भी त्याग है। माता सीता के त्याग और चरित्र की तो तुलना ही नहीं की जा सकती।

राम का चरित्र अनुशासन सिखाता है। यह भी सिखाता है कि प्रतिकूल परिस्‍थति में भी व्‍यक्ति को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए और शांत चित से समस्‍या का समाधान निकालने का मार्ग तलाशना चाहिए। गुरु के प्रति एक शिष्‍य का भाव कैसा होना चाहिए, जिसके पास शक्ति और सामर्थ्‍य है उसका व्‍यवहार समाज के प्रति कैसा होना चाहिए, साधन संपन्‍न होने के बावजूद उससे विरत रहना और सेवा करते समय कैसा भाव होना चाहिए, यह सब कुछ उनके व्‍यक्तित्‍व से सीखा जा सकता है। श्रीराम गुरु-शिष्‍य परंपरा के अद्भुत उदाहरण हैं। श्रीराम बालक थे, फिर भी ऋषि विश्‍वामित्र के आदेश पर उन्‍होंने ऋषि-मुनियों को भयहीन किया। वन-वन घूम कर उन्‍होंने आश्रमों में ऋषि-मुनियों के यज्ञ और आश्रमों में अध्‍ययन-अध्‍यापन में व्‍यवधान डालने वाले राक्षसों का संहार किया। इस तरह, श्रीराम अपने कार्य और व्‍यवहार से लोगों के हृदय में उतरते चले गए और लोगों ने सदा के लिए मर्यादा पुरुषोत्‍तम को अपने हृदय में बसा लिया। इसलिए श्रीराम सब के हैं। वह भारत के कण-कण में व्‍याप्‍त हैं।

शिक्षा पूरी होने के बाद गुरु के आदेश पर स्‍वयंवर में शामिल होते हैं, जहां बड़े-बड़े महारथियों की मौजूदगी भी नवयुवक राम को विचलित नहीं करती। इस प्रकार, असंभव समझे जाने वाले कार्य को संपादित कर श्रीराम माता सीता के साथ विवाह करते हैं और परिवार तथा राज्‍य की खुशी का कारण बनते हैं। राम एक आज्ञाकारी पुत्र भी थे, जो अपने पिता का वचन निभाने के लिए राजपाट, सुख और आराम सबकुछ छोड़कर संन्‍यासियों की तरह 14 वर्षों तक संघर्ष किया। नव विवाहिता पत्‍नी और भाई के साथ जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत भटकते रहे, लेकिन जीवन में आने वाली समस्‍याओं और कठिनाइयों से न तो विचलित हुए और न ही वनवास जैसे आदेश के लिए पिता पर कभी क्रोध ही किया। इस तरह राम का जीवनचरित एक आदर्श स्‍थापित करता है, साथ ही यह सिखाता है कि पिता के वचन या आदेश को पूरा करना पुत्र का कर्तव्‍य है। ऐसा अद्भुत चरित्र है हमारे राम का।

चित्रकूट के जंगलों में डरे-सहमे हुए लोग जो अत्याचारी राक्षसों से अपनी जान बचाने के लिए असंगठित जीवन जीने के लिए बाध्‍य थे। ऐसे जन सामान्य को उनकी शक्ति का अहसास करा कर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने योग्य बना देने का कौशल श्रीराम में ही हो सकता है। निषादराज को गले लगाकर और माता शबरी के जूठे बेर खाकर राम यह संदेश देते हैं कि ऊंच-नीच और जातिभेद ऊपर उठकर व्‍यक्ति को ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जहां सभी प्रेमपूर्वक मिल-जुल कर रहें। व्‍यक्ति की क्षमता के अनुसार उसका कहां और कैसे प्रयोग करना चाहिए, श्रीराम का जीवनवृत्‍त यह भी सिखाता है। इसलिए उन्‍होंने हनुमान और सुग्रीव के बल व पराक्रम का उपयोग युद्ध तथा दूसरे अवसरों पर किया, जबकि वास्‍तुकार नल-नील को पुल निर्माण का कार्यभार सौंपा। माता-पिता के बाद पत्‍नी के वियोग के बावजूद उनका संयम और नियम नहीं टूटा। वह लगातार बड़े लक्ष्‍य की ओर बढ़ते रहे और चुनौतियों से निपटने के लिए योजना तथा शक्ति बढ़ाते रहे। सब में सकारात्‍मक शक्ति का संचार करते रहे।

इस तरह, राम का व्‍यक्तित्‍व यह सीख देता है कि बिना कोई भेदभाव किए सभी को साथ लेकर चलना चाहिए। पशु-पक्षियों और वन्‍यजीवों की रक्षा करनी चाहिए। प्रकृति की विविधता की रक्षा करते हुए सभी वंचितों-शोषितों को न्‍याय दिलाने के मार्ग में बड़ी से बड़ी बाधा का सामना करना पड़े तो जरा भी नहीं हिचकना चाहिए। रावण जैसे अति बलशाली, अत्याचारी राक्षस का मुकाबला किया और सत्य, न्याय को स्थापित किया। ऐसे थे हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम।

जब हम कर्मों के आधार पर महात्‍मा गांधी, बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर, नेल्‍सन मंडेला आदि को महापुरुष का दर्जा देते हैं और जगह-जगह उनकी मूर्ति लगाते हैं, उनके नाम पर पार्क बनाते हैं तो अयोध्‍या में श्रीराम मंदिर मंदिर निर्माण और उनकी प्रतिमा स्‍थापना पर विरोध क्‍यों ? श्रीराम का मंदिर अयोध्या में ही नहीं, हर गांव, हर शहर में होना चाहिए। जाति-धर्म से निरपेक्ष रहकर देश विकास के पथ पर आगे बढ़े यही राम ने सिखाया था। भारत का हर युवा उनके पद चिह्नों पर चले तथा जात-पात, भेदभाव का बंधन तोड़कर ज्ञान और कर्म के आधार पर एक ऐसे समाज का निर्माण करे, जिसमें सब समान हों। शिक्षा, उत्पाद और सुरक्षा का सूत्र वाक्य, समाज के हर हिस्से का सही इस्तेमाल ही तो असल में राम राज है। श्रीराम ने बलशाली हनुमान, सुग्रीव को साथ लिया तो नील की इंजीनियरिंग क्षमता को भी सही तरीके से आंका, वनवासियों की अनगढ़ क्षमता को सेना में बदल डाला। क्या यह बेहतर राज्य का आधार सूत्र नहीं है ?

सौजन्य से पाञ्चजन्य


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